अभी-अभी तो मुझे
मिली थी बस्ती प्यासों की
बता रही थी पीर
मुझे जख्मी अहसासों की
लगा कि जैसे अभी
टाल से उठकर आई है
सुंदर सपनों की
महफिल से लुटकर आई है
चेहरा सुना रहा था
मौलिक कथा खटासों की
हाल चाल पूछा तो वह
कुछ डगमगा गई थी
अधरों पर पल भर को
सूखी हँसी आ गई थी
होती रही शिकार
सियासत के बदमाशों की
इतनी दागी गई
समय की गर्म सलाखों से
सूखा हुआ समंदर
झाँक रहा था आँखों से
नहीं खास बनकर रह पाई
अपने खासों की
सूखी पोखर की माटी-सी
काया लिए हुए
अरसा बीत गया है
इस हालत में जिए हुए
नहीं कर सकी दूर दर्द को
दवा दिलासों की।